- डॉ.अजीत रानाडे
समाज में कभी भी पूर्ण समानता नहीं हो सकती। आर्थिक विकास उन लोगों को पुरस्कृत करता है जो अधिक प्रतिभाशाली और अधिक उद्यमी हैं। तेज गति से हुआ विकास उस अंतर को बढ़ाता है। कहीं न कहीं हमें रुककर यह पूछना होगा कि एक समाज के रूप में हमें कितनी असमानता स्वीकार्य है। उदाहरण के लिए बिजली, परिवहन एवं निर्माण संबंधी गतिविधियों की वजह से आधुनिक औद्योगिक युग में प्रदूषण हमेशा रहेगा लेकिन हमने प्रदूषण पर भी अंकुश लगाया।
स्विट्जरलैंड में इस वर्ष दावोस शिखर सम्मेलन के पहले दिन ऑक्सफैम इंटरनेशनल ने 'सर्वाइवल ऑफ द रिचेस्ट' शीर्षक से एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी। हर वर्ष जनवरी में दावोस बैठकों के उ्दघाटन के समय ऑक्सफैम जान-बूझकर यह रिपोर्ट जारी करता है। एक ऐसा सम्मेलन जिसमें व्यापार और राजनीतिक दुनिया से दुनिया के अभिजात वर्ग इकठ्ठा होते हैं। उस समय अधिकतम प्रचार हासिल करने के लिए यह काम किया जाता है। हालांकि यह कभी भी सार्वजनिक नहीं किया गया है लेकिन कहा जाता है कि सम्मेलन में भाग लेने के लिए इस वर्ष प्रति व्यक्ति भागीदारी शुल्क 120,000 डॉलर से अधिक था। सम्मेलन में भुगतान कर भाग लेने वाले प्रतिनिधियों की संख्या &000 से अधिक है।
कई अन्य वक्ताओं को भी आमंत्रित किया जाता है। इस बार मंदी के बढ़ते साये में यह सम्मेलन आयोजित किया गया था। विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष दोनों ने ही विकसित अर्थव्यवस्थाओं के लिए इस मंदी का पूर्वानुमान किया है। इस पर एक साल से चल रहे यूक्रेन में युद्ध की लंबी छाया भी है जिसका कोई अंत नहीं दिख रहा है। इस वर्ष का विषय 'खंडित हो रही दुनिया में सहयोग' था। विखंडन का संदर्भ व्यापार युद्धों के कारण डी-ग्लोबलाईजेशन से है और अब यूक्रेन संघर्ष के कारण उत्पन्न व्यवधान है जिसका परिणाम मुद्रास्फीति तथा मंदी के रूप में सामने है।
दूसरा बड़ा विखंडन अमीर और गरीब के बीच बढ़ता विभाजन है। आर्थिक विकास से मिले लाभ पर आबादी का एक छोटा सा हिस्सा कब्जा कर रहा है। इस वर्ष की ऑक्सफैम की रिपोर्ट में दुनिया भर में असमानता और गरीबी के रुझानों पर प्रकाश डाला गया है। रिपोर्ट बताती है कि गरीबी और असमानता दोनों बदतर हो गई हैं। दोनों को मापने के मापदंड अलग-अलग हैं। गरीबी को मापने का मानदंड यह है कि कितने लोगों को दो वक्त की रोटी मिल रही है या वे न्यूनतम जरूरतों को किस तरह पूरा कर सकते हैं। असमानता को मापने का तरीका अमीर और गरीब के बीच की खाई है।
सैद्धांतिक रूप से यह संभव है कि एक समाज में बहुत कम गरीबी हो सकती है और इसके बावजूद बहुत अधिक असमानता हो सकती है। विकसनशील अर्थव्यवस्था के लिए गरीबी कम हो जाती है जबकि संभव है कि असमानता बढ़ सकती है। वैसे आम तौर पर इसका आपस में कुछ संबंध होता है। ऑक्सफैम की इस रिपोर्ट में कहा गया है कि पिछले दो साल से टॉप 1 प्रतिशत लोगों की संपत्ति में 26 ट्रिलियन डॉलर की वृद्धि हुई है जो निचले 99 प्रतिशत लोगों की संपत्ति में हुई वृद्धि से दोगुने से अधिक है।
धन में इस बढ़ोतरी का अधिकांश हिस्सा संभवत: शेयर बाजार और आवास में वृद्धि के कारण है। आय लाभ काफी हद तक शीर्ष पर जा रहे हैं। दूसरी ओर मुद्रास्फीति की दर की तुलना में लगभग 1.7 बिलियन श्रमिकों को अपनी मजदूरी में धीमी वृद्धि देखने मिली है। इसका अर्थ यह है कि उनकी क्रय शक्ति कम हो गई है। इस प्रकार हम देखते हैं कि गरीबी बढ़ गई है। विश्व बैंक की 2022 की रिपोर्ट में भी कहा गया है कि वैश्विक गरीबी 8.4 प्रतिशत से बढ़कर 9.& प्रतिशत हो गई है। विश्व बैंक ने गरीबी स्तर मापने का पैमाना एक दिन में 2.15 डॉलर की आय को माना है।
कोविड महामारी के कारण 2020 के अंत तक अनुमानित 7 करोड़ अतिरिक्त लोग गरीबी रेखा से नीचे आ गए थे जिनमें से सिर्फ भारत में ही 5.6 करोड़ लोग हैं। भारत महामारी के प्रभाव के बारे में सचेत था- विशेष रूप से गरीबों पर पड़ने प्रभाव के बारे में सतर्क था और इसलिए भारत ने ढाई साल तक मुफ्त भोजन कार्यक्रम चलाया जिससे 81 करोड़ लोग लाभान्वित हुए। इस कार्यक्रम को और एक वर्ष के लिए बढ़ा दिया गया है जिसका अर्थ है उच्च खाद्य मुद्रास्फीति के आलोक में गरीबों की रक्षा करने तथा खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने की आवश्यकता निरंतर बनी हुई है।
असमानता के बारे में क्या सोचा जा रहा है? ऑक्सफैम ने भारत पर केंद्रित एक खास रिपोर्ट जारी की है। इसमें कहा गया है कि भारत में 2022 के दौरान अरबपतियों की संख्या 102 से बढ़कर 166 हो गई। 100 सबसे अमीर भारतीयों की संपत्ति अब लगभग 660 बिलियन डॉलर यानी लगभग 55 लाख करोड़ रुपये है। पिछले दो वर्षों में संपत्ति लाभ का दो तिहाई वैश्विक स्तर पर शीर्ष 1 प्रतिशत लोगों में चला गया है।
भारत में भी यही प्रवृत्ति दिखाई दे रही है। इसका मतलब है कि धन और आय असमानता बदतर हो रही है। यदि आप शिक्षा तक लोगों की पहुंच के संदर्भ में विचार करते हैं तो इस सिलसिले में यूनिसेफ ने पिछले साल बताया कि महामारी के दो साल में भी स्कूलों के आंशिक या पूर्ण रूप से बंद होने के कारण बंद होने से 600 मिलियन से अधिक बच्चे प्रभावित रहे। यूनेस्को ने पिछले साल सितंबर तक 24.4 करोड़ लोगों के स्कूल जाने का अनुमान लगाया था। भारत में भी स्कूल बंद होने या ऑनलाइन टूल्स, बैंडविड्थ या बुनियादी ढांचे तक अपर्याप्त पहुंच के कारण संभवत: 10 करोड़ से अधिक छात्रों की शिक्षा प्रभावित हुई है।
मानव पूंजी को हुई इस क्षति को पूरा करने के लिए बहुत प्रयास करने होंगे उसी समय भारतीय समाज का एक छोटा सा वर्ग अपने बच्चों को तेजी से आगे बढ़ते हुए देखेगा। इसलिए आय और धन के अलावा शिक्षा पाने तक पहुंच एवं शिक्षा प्राप्ति में भी हम बढ़ती असमानता देख रहे हैं। इसके अलावा, स्वास्थ्य सेवा, सुरक्षित पेयजल व अन्य क्षेत्र भी हैं जहां असमानता है। इस तरह आप देख सकते हैं कि असमानता कम नहीं हो रही है बल्कि बदतर होती जा रही है।
समाज में कभी भी पूर्ण समानता नहीं हो सकती। आर्थिक विकास उन लोगों को पुरस्कृत करता है जो अधिक प्रतिभाशाली और अधिक उद्यमी हैं। तेज गति से हुआ विकास उस अंतर को बढ़ाता है। कहीं न कहीं हमें रुककर यह पूछना होगा कि एक समाज के रूप में हमें कितनी असमानता स्वीकार्य है। उदाहरण के लिए बिजली, परिवहन एवं निर्माण संबंधी गतिविधियों की वजह से आधुनिक औद्योगिक युग में प्रदूषण हमेशा रहेगा लेकिन हमने प्रदूषण पर भी अंकुश लगाया। एक समाज के रूप में हमने स्वच्छ प्रदूषण रहित ऊर्जा की ओर मुड़ते हुए इसके लिए जरूरी आवश्यकताओं को लागू किया है। क्लीनर कारों के लिए नए उत्सर्जन मानदंड लागू किया गया है।
हानिकारक धुएं को कम करने के लिए कारखाने की चिमनियों में स्क्रबर का उपयोग किया गया। इसलिए किसी बिंदु पर हमें कहना होगा कि यहां तक असमानता सही जा सकती है इससे अधिक नहीं होनी चाहिए अन्यथा हमें सामाजिक अस्थिरता, कानून तथा व्यवस्था की बढ़ती समस्याओं, निवेशकों की घबराहट और अंतत: धीमी या स्थिर वृद्धि से जूझना पड़ता है। यह हम सभी के लिए एक बुरा सपना होगा। बेरोजगार किशोरों की बड़ी संख्या सामाजिक तनाव बढ़ाएगी। इसलिए असमानता कम करने के लिए उसी तरह ध्यान केंद्रित करना होगा जैसे प्रदूषण कम करने के मामले में किया गया है क्योंकि असमानता न केवल गरीबों को प्रभावित करती है बल्कि हम सभी पर उसका असर पड़ता है।
हम 74वां गणतंत्र दिवस मना रहे हैं। आइए, इस मौके पर हम भाईचारे, स्वतंत्रता और समानता के मूलभूत मूल्यों को याद करें। यह समानता आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक क्षेत्र में है। 25 नवंबर, 1949 को डॉ. अम्बेडकर ने अपने ऐतिहासिक भाषण में सतर्क किया था कि यदि हम भारतीय समाज में बढ़ती असमानता के खतरे को नजरअंदाज करते हैं तो 'जो लोग असमानता से पीड़ित हैं तो वे इतनी मेहनत से बनाई गई राजनीतिक लोकतंत्र की संरचना को उड़ा देंगे (जो हमारे पास है)...'। उनके ये शब्द नक्सलबाड़ी हिंसा की पहली घटना से बीस साल पहले कहे गए थे। यह एक चेतावनी है जिस पर हमें आज और अधिक शीघ्रता के साथ ध्यान देना चाहिए।